क्या भारत के लोग कोरोना वायरस की विभीषिका से बच पाएंगे? विचारणीय वैज्ञानिक तथ्यों का आकलन

लेखक – प्रो. पंकज चतुर्वेदी, डिप्यूटी डॉयरेक्टर, टाटा मेमोरियल सेंटर, मुंबई

सह लेखक- डॉ. अक्षत मलिक, पूर्व रिसर्च फेलो, टाटा मेमोरियल सेंटर, मुंबई

अनुवाद –  विमल मिश्र, वरिष्ठ पत्रकार, मुंबई।

Disclaimer – सरकार ने लॉक डाउन, हाथ धोने, सोशल ‌‌‌डिस्टैंसिंग, क्वारंटाइन जैसे जो निर्णय अमल कराए हैं वे बहुत उचित और विवेकसम्मत हैं और उनका पालन होना ही चाहिए।क्योंकि यही एकमात्र तरीका है जिससे ज्यादातर देशों ने कोरोना महामारी का प्रकोप कम करने में कामयाबी हासिल की है। भारत सरकार के जो भी निर्देश हों उनका पालन करते हुए कोरोना वायरस के विस्तार को  रोकने के लिए जो कुछ भी हमारे वश में हो उसे करने में सहयोग करें।

कोरोना वायरस (कोविड-19) के विस्तार में न तो भौगोलिक स्थिति का कोई दखल है, न किसी देश की आर्थिक ताकत का इससे कोई लेना-देना। कोरोना के कहर ने बगैर कोई पक्षपात या भेदभाव किए, किसी को भी नहीं बख्शा है। समूचा विश्व इस समय पूरी तरह ठिठका हुआ है। इससे 600000 से ज्यादा लोग संक्रमित हैं और 30000 से ज्यादा जान से हाथ धो बैठे हैं। यह सब कुछ ही महीनों के भीतर हो गया है।

सरकार ने लॉक डाउन, हाथ धोने, सोशल ‌‌‌डिस्टैंसिंग, क्वारंटाइन जैसे जो निर्णय अमल कराए हैं वे बहुत उचित और विवेक सम्मत हैं और उनका पालन होना ही चाहिए। यह बहुत अच्छा हुआ कि कुछ यूरोपीय देशों की तुलना में भारत ने यात्रियों की जांच और हवाई यात्रा को नियंत्रित करने जैसे कदम पहले ही उठा लिये थे। भारत जैसे बड़े और विशाल आबादी वाले देश में लोगों के आने-जाने और उनके व्यवहार को नियंत्रित कर पाना सरल काम नहीं है, यह साधारण समझ की बात है। सरकार द्वारा एहतियाती कदम उठाने से कोरोना के केस और मृत्यु संख्या को कम करने में मदद मिलेगी, इस बात में तो शक ही नहीं है। अब देखना यह है कि सरकार समय-समय पर जनता को जो सलाह और‌ आदेश जारी कर रही है उसके पालन में किसी तरह की ढिलाई या चूक न हो। क्योंकि यही एकमात्र तरीका है जिससे ज्यादातर देशों ने कोरोना महामारी का प्रकोप कम करने में कामयाबी हासिल की है। 

भारत किसी भी तरह की संक्रामक बीमारी के ‌‌लिए उर्वर स्थान माना जाता है। इन बीमारियों को फैलाने में मदद करती है भीड़-भाड़, गरीबी, अज्ञानता, निरक्षरता, निजी साफ-सफाई की निम्न गुणवत्ता, स्वास्थ्य संबंधी खराब बुनियादी ढांचा और खराब निम्न स्तर का सार्वजनिक स्वच्छता। भारत कोरोना वायरस से अछूता नहीं है। गनीमत है कि दूसरे देशों में इस वायरस ने जैसी तबाही मचाई है वह अभी तक हमारे देश में नहीं देखी गई। इसे इसी बात से परखा जा सकता है कि 29 मार्च, 2020 तक भारत में कोराना पॉजिटिव केसों की संख्या 1000 से कुछ ही ऊपर जा सकी है और मौतों के तादाद तो महज 25 है। पर क्या यह खतरे का सही आकलन है? मेरे विचार से तो नहीं। संभव है भारत में कोराना संक्रमण का उस तरह परीक्षण नहीं हो रहा हो, जैसा पश्चिमी देशों में हो रहा है। उस मामले में स्थिति की गंभीरता का अंदाज मृत्यु संख्या से लगाया जाता, जो मानना पड़ेगा अभी तक यह आंकड़ा निःसंदेह आश्चर्यजनक रूप से कम है। सोशल मीडिया के मंचों पर देखो तो इसके लिए कई तरह की तर्क पेश किए जाते मिलेंगे। मसलन, अन्य देशों की तुलना में मसालेदार और गर्म भोजन का सेवन और साफ-सफाई के निम्न स्तर के कारण भारतीयों में रोग-प्रतिरोधक शक्ति का अधिक होना। दरअसल, ये बेसिर-पैर के तर्क हैं और इनका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। इनका परीक्षण तो और भी कठिन काम है। इस लेख में हमने उन मापदंडों पर नजर डालने की कोशिश की है जो कोरोना वायरस के प्रसार और विस्तार में सहायक बन सकते हैं। हमने उन स्थितियों और कारकों पर भी विचार किया है जिनसे भारतीय उपमहाद्वीप में कोविड-19 की तीब्रता बनिस्पत कम होने पर प्रकाश पड़ सकता है। विश्व के इस हिस्से में यह संक्रमण चूंकि अभी चरम पर नहीं पहुंचा है, इसलिए यह मानने में हर्ज नहीं होना चाह‌िए कि हमारे निष्कर्ष अपरिपक्व भी हो सकते हैं। 

कोरोना वायरस कोई पहली वैश्विक महामारी नहीं है, जो मौजूदा सहस्राब्दी में भारत ने देखी हो। एशिया-प्रशांत क्षेत्र बर्ड या एवियन फ्लू-जिसे सिवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिस्टम के लक्षणों के रूप में जाना जाता है-दक्षिणी चीन से 2002 की सर्दियों में फैलना शुरु हुआ। भारत में बर्ड फ्लू का पहला केस अप्रैल, 2003 में नजर आया था। इस वैश्विक महामारी के कुल मामलों की तादाद (नवंबर, 2002 से जुलाई, 2003 के बीच) कम से कम 8098 थी। जहां चीन और हांग कांग में इस बीमारी से 640 लोग मरे, भारत में कंफर्म मामलों की तादाद महज 3 थी और मृत्यु तो एक भी नहीं। 

दुनिया भर में कहर बरपाने वाला इंफ्लूएंजा (H1NI)-जिसे स्वाइन फ्लू के नाम से भी जाना जाता है-2009 में मध्य मैक्सिको से शुरु हुआ था। H1NI ने विश्व भर में 60 लाख लोगों को अपनी गिरफ्त में लिया था, जबकि कन्फर्म मौतों की तादाद 20000 थी। इसके विस्तार को रोकने के लिए भारत ने दूसरे देशों के आने वाले लोगों पर कड़ी निगरानी सहित कई उपाय किए थे। मार्च, 2010 तक भारत में इसके 20164 मामले सामने आए थे, जिनमें 1444 मौतें थीं। भौगोलिक लिहाज से देखें तो इस महामारी से प्रभावित होने वालों में अमेरिका, ब्राजील, यूरोप और चीन अव्वल स्थान पर थे। 

2014-2015 ने भारत ने जिस इबोला वॉयरस की आफत देखी वह पश्चिमी अफ्रीका से आरंभ हुआ था और फिर यूरोप होते हुए शेष विश्व में फैल गया। इस वायरस की मृत्यु दर 50 प्रतिशत से अधिक थी। दुनिया भर में 11315 लोगों की जानें लेने वाला इबोला वायरस भारत सरकार के निवारक प्रयासों की वजह एक भी जान लेने में कामयाब नहीं हो पाया। आलोचक चाहें  तो इसकी वजह अंडर-रिपोर्टिंग और वॉयरस की जांच के लिए सुविधाओं के अभाव को बताएं, पर उन्हें यह भूलना नहीं चाहिए कि हाल के वर्षों में निदान परीक्षण जहां आम और सहज रूप से उपलब्ध हुए हैं, वहीं सरकार का जोर भी इन मामलों को जाहिर करने पर है।

इन सबसे मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है-कहीं भारत में रहने वाले लोग वायरस जनित महामारियों से प्रतिरोधी तो नहीं? हम इस सवाल का परीक्षण इन तीन शीर्षकों के अंतर्गत करने का प्रयास करेंगे- कारक (वायरस), समुदाय (भारत में रहने वाले लोग) और वातावरण (भारतीय उपमहाद्वीप का)।

 भारत, इटली, अमेरिका, नेपाल और वुहान के करोना पॉजिटिव मरीजों के वायरस जीनोम के जीनोम संबंधी विष्लेषण में शोधकर्ताओं ने भारतीय स्ट्रेंस में जो अनोखे म्यूटेशन पाए हैं वे दूसरों से अलग हैं। उन्होंने कुछ होस्ट mi-RNA भी पाए हैं। ये खास तौर पर ऐसी वाइरल जीनों को निशाना बना सकते हैं, जो mi-RNA और भारतीय स्ट्रेंस और mi-RNA के संदर्भ में विशेष हैं। चीनी शोधकर्ताओं ने भी पाया है कि स्ट्रेंस L और  S प्रकार के होते हैं ;  L प्रकार का स्ट्रेंस S की तुलना में अधिक व्यापक और आक्रामक होता है। हमें अभी तक मालूम नहीं है कि इनमें से किस स्ट्रेन भारत में अधिक जोर है।

जहां तक होस्ट या समुदाय का संबंध है पूरे विश्व में देखा गया है कि कोविड-19 संक्रमण उम्रदराज लोगों के साथ उन लोगों के लिए अधिक घातक है, जिन्हें रोगों ने पहले से जकड़ा हुआ है। इटली की हालत शायद इसीलिए ज्यादा खराब है कि वहां की लगभग एक-चौथाई (23 प्रतिशत) आबादी की उम्र 65 से ज्यादा है। तुलना करें तो भारतीय कहीं ज्यादा युवा हैं (यहां यह प्रतिशत केवल आबादी का 6.5 प्रतिशत है।)। युवाओं में वायरस का संक्रमण अव्वल तो इतना घातक नहीं है और अगर संक्रमण है भी तो उससे वे बगैर किसी तरह की स्थायी अशक्तता के आसानी से उबरने की क्षमता रखते हैं। 

चीन और अन्य दूसरे देशों के अध्ययनों से पता चला है कि तंबाकू धूम्रपान/ ई-सिगरेट से कोराना संक्रमण ही नहीं, बाद में मृत्यु का खतरा भी बढ़ जाता है। चीन, इटली और अमेरिका में धूम्रपान की दर 21%, 14% और 15% है, जबकि भारत में 9%। देखा गया है कि सबसे बुरी तरह प्रभावित देशों में कोविड-19 ने महिलाओं की तुलना में पुरुषों को अधिक निशाना बनाया है (तीन गुना अधिक)। इसका सीधा संबंध पुरुषों में धूम्रपान और शराब पीने की लत अधिक होने से हो सकता है। हृद धमनी और फेफड़ों की बीमारियां अगर हैं तब तो कोविड-19 से मृत्यु का खतरा और भी बढ़ जाता है। यहां जयह हो भारतीय ‘नमस्ते’ की, जो पश्चिमी शैली के हैंडशेक और गाल पर चुंबन के बेहतर विकल्प के रूप में पिछले दिनों तेजी से लोकप्रिय हुआ है। 

मलेरिया और टी. बी. जो युगों से भारत के लिए अभिशाप बने हुए हैं क्या कोविड-19 से बचाव में वे लाभप्रद साबित होंगे? BCG की ही मिसाल लेते हैं- टी. बी. से बचाव का टीका, जो प्रतिरोधक क्षमता बढ़ाने के कई गुणों को समेटा हुआ है। यह अन्य रोगजनकों के बचाव में भी कारगर सिद्ध हो सकती है। नीदरलैंड और आस्ट्रेलिया में परीक्षणों से बहरहाल, शोधकर्ता इस बात का पता लगाने में लगे हैं कि क्या BCG के टीके से कोरोना वायरस से सुरक्षा मिल सकती है, या कम से कम वह उसके लक्षणों की घातकता को कम करने में सहायक सिद्ध हो सकता है? BCG  राष्ट्रीय प्रतिरक्षा योजना का हिस्सा है और भारत में अधिकांश लोग इसका डोज पहले ही ले चुके हैं।

हाल के दिनों में कोविड-19 के मुकाबले के लिए रोग-निरोध के वास्ते H droxychloroquine के उपयोग ने भी समाचार माध्यमों का ध्यान खींचा है। ऐसे संक्रमणों के उपचार के ‌लिए कई अध्ययन इस समय जारी हैं। देश के जो क्षेत्र मलेरिया की दृष्टि से संवेदनशील हैं उनमें (कम से कम अभी तक) कोरोना के केस नहीं के बराबर सामने आए हैं। इससे यह विचार बनता है कि शायद इन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों में कोराना वायरस से जूझने की शायद नैसर्गिक क्षमता है। यानी, मलेरिया से लड़ने में जो आनुवांशिक और आणुविक बदलाव सहायक हो रहे हैं वे ऐसे लोगों को कोरोना वायरस से बचाव में भी बेहतर प्रतिरक्षा देंगे। दुर्भाग्य से यह अभी तक परिकल्पना ही है और इसके पीछे कोई पुष्ट वैज्ञानिक आधार नहीं है। इसके अलावा इधर मलेरिया के प्रकोप वाले क्षेत्रों में भी ऐसे मामलों की संख्या बढ़ने लगी है। इससे इस परिकल्पना पर सवाल जरूर उठते होंगे, पर उन्हें नकार दिया गया हो, ऐसा भी नहीं। 

यह भी विश्वास किया जाता है कि बचपन से भी तरह-तरह की संक्रामक बीमारियों के संपर्क में आने से एक जन्मजात प्रतिरोधक क्षमता विकसित हो जाती है, जो कोविड-19 जैसी बीमारियों को दूर रखने में सहायक सिद्ध हो सकती है। यह बात कोरोना वायरस से संबद्ध अन्य बीमारियों के कम मामले सामने आने से झलकती है। इस निष्कर्ष को लेकर बहस की जा सकती है, क्योंकि बतौर एक समुदाय के हम कई अन्य विषाणु जनित संक्रमणों के खतरों से अभी भी मुकाबिल हैं। 

जहां तक वातावरणीय कारकों का संबंध है उन्हें हम प्राकृतिक और प्रवित्त या प्रेरित-इन दो प्रकारों में विभाजित करेंगे। प्राकृतिक वातावरण के कारकों में क्षेत्र विशेष का तापमान शामिल है। अध्ययनों से पता चला है कि ठंडे माहौल कोरोना वायरस के विस्तार में न सिर्फ सहायक है, बल्कि अधिक घातक भी। आप देख लीजिए, ज्यादातर भू-भाग जो कोरोना से सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं भौगोलिक रूप से शीत क्षेत्रों में ही मिलेंगे। कोरोना प्रोटीन की नुकीली कीलों से जड़ी वसायुक्त तह के आवरण में मुकुट-रूपी वायरस है। वह मुकुट, जिसे लैटिन में ‘कोरोना’ के नाम से पुकारते हैं। गर्मी संवेदी मोटे आवरण के कारण यह वायसर गर्म माहौल में शरीर के बाहर ज्यादा देर जिंदा नहीं रह सकता। इस‌लिए गर्म माहौल में इसके फैलाव की गति मंद पड़ जाती है। इसीलिए प्रभावित देशों की कोशिश है कि गर्मी के मौसम में यह चरम पर देरी से पहुंचे। 

और भी तरीके हैं, जिनसे भारत की मशहूर ग्रीष्म ऋतु हमारे उद्धार में सहायक बन सकती है। कोरोना वायरस UV किरणों के प्रति अतिसंवेदशील है, जो साफ-खुले आसमान और तेजझ)-चमकदार सूरज के कारण सहज ही उपलब्ध हैं। विटामिन-डी को सभी तरह की संक्रामक बीमारियों के बचाव के लिए सहायक माना जाता है, जो सूर्य की रोशनी से ही हासिल होता है। गर्मियों के विपरीत, शीतकाल में सूर्य से दूर रहने और ठंड से रक्षा के लिए पहिने कपड़ों से शरीर को विटामिन-डी की खुराक सही मात्रा में हासिल नहीं हो पाती। 

गर्मी की तरह नमी भी कोविड-19 के दुष्प्रभावों को कुंद कर देने में सहायक है। आस-पास अगर सूखी हवा हो तो यह हमारे फेफड़ों पर परत की तरह चिपके चिपचिपे कफ या बलगम की मात्रा को कम देती है। हमारी श्वसन प्रणाली में यह कफ बैक्टीरिया और वाइरल संक्रमणों से लड़ने में एक प्राकृतिक अवरोध का काम करता है। चीन की केस स्टडी से पता चला है कि जिन दिनों वहां तापमान या नमी का स्तर अधिक था, कोविड-19 से हुई मौतों की तादाद भी कम थी। 

उपर जिन संभावनाओं की चर्चा हमने की है उनका सार हालांकि यही है कि भारतीय कोविड-19 की विनाशलीला से बच सकते हैं, पर उसका वास्तविक असर अंततः क्या है इसे जानने के लिए हमें कुछ सप्ताहों तक इंतजार करना होगा। हमारे लिए बेहतर यह है कि अभी हम इन परिकल्पनाओं से भटकें नहीं और भारत सरकार के जो भी निर्देश हों उनका पालन करते हुए कोरोना वायरस के विस्तार को  रोकने के लिए जो कुछ भी हमारे वश में हो उसे करने में सहयोग करें।

Published by Prof Pankaj Chaturvedi

Deputy Director, Center for Cancer Epidemiology, Tata Memorial Center, Mumbai. Professor, Department of Head Neck Surgery, Tata Memorial Hospital, Mumbai

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